Wednesday, June 1, 2016

ग़ज़ल



ग़ज़ल


बेशक लिखें दीवान में मसला जुबान का
उससे कहें न राज जो कच्चा है कान का 

जर है न औ जमीन न जोरू का है पता
नक्शा रहा है खींच मगर वह मकान का.

जिसकी वजह से मौज-मजा आज मिल रहा
अहसान मानियेगा उसी बेईमान का 

उम्मीद क्या करेगें वफ़ा जो हैं पालतू
हर रोज दिख रहा है असर खानदान का 

हैं पंथ बहुत यार मगर धर्म एक ही
रिश्ता सदा चलेगा यहाँ खानपान का

दुश्वारियों की आंच में तपकर है जो पला
हर माल बेहतरीन है उसकी दुकान का

'अम्बर' से पा के प्यार जमीं फूल फल रही
करिए न ऐसा काम घुटे दम किसान का 

रचनाकार:
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'