Sunday, July 24, 2011

पानी ही पानी दिखे















पानी ही पानी दिखे, मिले न कोई ठौर,
चढ़ आयी है घाघरा, चले न कोई जोर.
चले न कोई जोर, सभी कुछ जल में खोया,
बचे पेड़ ही ठांव, उन्हीं कांधों पर रोया.
अम्बरीष क्यों आज, नदी करती मनमानी ,
काटे हमने पेड़, तो आया चढ़कर पानी.
--अम्बरीष श्रीवास्तव 

6 comments:

  1. आदरणीय भाई राजेंद्र स्वर्णकार जी आपके आगमन से यह स्थान पावन हुआ .......इस निमित्त हृदय से आभार स्वीकारें मित्रवर !

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  2. प्रियवर अम्बरीष जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    आप भी मुझ जैसे ही निकले न … … … !


    मैं जब तक आपकी रचना के बारे में लिखता नेट की समस्या आ गई … सोचा , अब आता ही रहूंगा …

    आपकी रचनाएं OBO पर भी देखी , यहां भी … आप गुणी हैं ।

    गुणियों के सम्मुख मैं सदैव नतमस्तक हो जाता हूं …
    इसमें भी मेरा स्वार्थ है :)
    क्योंकि मां सरस्वती अपने वरद पुत्रों का सम्मान करने वालों पर कृपा करती है , सोचता हूं … मुझ पर भी वरदा का वरद हस्त हो जाए …


    हार्दिक शुभकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. आदरणीय भाई राजेंद्र स्वर्णकार जी,
    हृदय से अभिनन्दन मित्रवर !
    सर्वप्रथम उस परमात्मा को नमन करता हूँ जिसकी असीम कृपा से आप यहाँ पधारे ! ओ बी ओ के अतिरिक्त आपको मैनें समस्यापूर्ति पर भी पढ़ा है ......सच में आप पर वरदा का वरद हस्त है ......आप जैसे गुणी साहित्यकार की सराहना पाकर मुझमें एक नवीन उर्जा का संचार हुआ है इस निमित्त हृदय से आभार स्वीकारें मित्रवर ........

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  4. वाह अम्बरीष भाई, क्या खूब कुंडलिया प्रस्तुत की है|
    'काटे हमने.........' मनुष्य ने पर्यावरण के साथ जी खिलवाड़ किया, अब उस का हर्ज़ाना भर रहा है|
    ब्लॉग सज्जा काफ़ी आकर्षक लग रही है|
    सुंदर कुंडलिया छन्द हेतु बधाई|

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  5. स्वागत है आदरणीय मित्र नवीन जी !
    कुण्डलिया छंद के साथ साथ ब्लॉग सज्जा को सराहने के लिए आपका हृदय से आभार !

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  6. सर्व प्रथम सादर चरन स्पर्श

    दो शब्द ही कहूँगा आप की कलम का मेरे मन मस्तिक पर बहुत ही गहरा असर हो चूका हे.. में अभी अभी आप की रचना ओ से जुडा हु वाकय अदभुत अद्वितय

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